Saturday 29 September 2012

दुनिया भर में अराजकता फैला रही है मीडिया

पत्रकारिता का स्वरुप अब कुत्ते और सूखी हड्डी जैसी है......एक ही मुद्दे को पकड़कर उसे तब तक निचोड़ते हैं....जब तक की खुद का खून ख़त्म होने की नौबत न आ जाये.........दुनिया भर में नफरत फ़ैलाने का कम् आज मीडिया क्र रही है.........जन्म से स्वतंत्र और साहसी मनुष्यों को मीडिया ने....अमीर......गरीब.......छोटा....बड़ा........तथा जाति....धर्म.......भाषा..........और खेत्र के रूप में बाँट रखा है........बैनेट कोलमैन एंड कम्पनी का.......'टाइम्स' ग्रुप का कई देशों में पत्रकारिता का कारोबार है.......कभी एक ही देश रहे भारत-पाकिस्तान के बीच किसी भी मुद्दे को इस अखबार का दोहरा मापदंड रहता है.......पाकिस्तान से प्रकाशित अख़बार में पाक भाइयों को शहीद और भारतीय सैनिकों को दुश्मन बताया जाता है......तो दूसरी और भारत से प्रकाशित होने वाले उसी ग्रुप के पेपर में ठीक उलट पाकियों को दुश्मन और भारतीय सैनिकों को शहीद बताया जाता है........एक बात और जिसे नजरअंदाज नहीं किया जा सकता. वह यह कि जब भारत और पकिस्तान दोनों देशों के नागरिकों को पता है कि सीमा सुरक्षा बलों में भर्ती होने का मतलब अपने आपको ख़ुदकुशी के मार्ग पर ले जाना.......तो फिर आखिर हम सेना में भर्ती ही क्यों हों..............

Friday 17 August 2012

भारत और चीन भाई-भाई

गत माह अमेरिकी विदेषमंत्री हिलेरी क्लिंटन ने एक व्याख्यान में कहा कि चीन में लोकतन्त्र के विकास की ओर ध्यान नहीं दिया जा रहा है और यह चीन के विकास में सबसे बड़ी बाधा है। चीन के एक शोध संस्थान ने इसकी प्रतिक्रीया में एक लेख प्रकाशित किया जिसमें चीनी विद्वानों ने अमेरिकी वैश्विकवाद को चुनौति दी। उन्होंने प्रश्न किये कि जो पश्चिम में अपनाया गया है उसी व्यवस्था को अपनाना विकास कैसे माना जायेगा? क्या पश्चिमी देश दावे के साथ कह सकते है कि उनके द्वारा गत कई वर्षों से अपनाये गये तन्त्र ने देश के सभी लोगों को सुख प्रदान किया है? यदि पश्चिम द्वारा अपनायी व्यवस्था आदर्श होती तो आज उन देशों में बेराजगारी, कर्ज, सामाजिक व पारिवारिक विघटन क्यों बढ़ रहा है? लोकतन्त्र यदि आदर्श व्यवस्था है तो क्या इसने सभी देशों में आदर्श परिणाम दिये है? जिन देशों ने इसे अपनाया वे आज भी जब आदर्श समाज, राजनीति व अर्थव्यवस्था को नही प्राप्त कर सके हैं तो फिर अमेरिका को क्या अधिकार है कि वो इस अधुरी असफल व्यवस्था को सबके उपर थोपें? चीनी विद्वान केवल प्रश्नों तक ही सीमित नहीं रहे। उन्होंने दावा किया कि चीन में व्यवस्थागत सुधार उसके अपने ऐतिहासिक अनुभव, संस्कृति व दर्शन के अनुसार ही होना चाहिये। उनके अनुसार चीन के लिये लोकतन्त्र के स्थान पर कन्फुशियन द्वारा प्रणीत ‘मानवीय सत्ता’ के सिद्धान्त पर विकसित व्यवस्था अधिक उपकारक व सम्यक होगी। शोधकारकों ने इस सिद्धान्त पर आधारित एक व्यवस्था के बारे में विस्तार से प्रस्ताव भी लिखा।
लोकतन्त्र की उपयोगिता अथवा चीनी विद्वानों द्वारा प्रस्तुत राजनयिक व्यवस्था पर विचार विमर्श अथवा विवाद भी हो सकता है किन्तु सबसे महत्वपूर्ण विचारणीय बिन्दू है कि उन्होंने छाती ठोक कर यह कहा कि उनके देश के लिये उनके अपने विचार व इतिहास में से निकली व्यवस्था ही उपयोगी है। किसी और के लिये जो ठीक है वह सबके लिये ठीक ही होगा यह साम्राज्यवादी सोच नहीं चलेगी। साथ ही अपने अन्दर से तन्त्र को विकसित करने के स्थान पर विदेशी विचार से प्ररित होकर व्यवस्था बनाना भी मानसिक दासतता का ही लक्षण है। जब हम स्वतन्त्रता के छः दशकों के बाद के भारत की स्थिति का अवलोकन करते हे तो हमे निराशा ही होती है। 15 अगस्त 1947 को जब भारत स्वतन्त्र हुआ तो हमारे राष्ट्रीय नेतृत्व के साथ ही पूरे विश्व को भी भारत से अनेक अपेक्षायें थी। इसी कारण 1950 के दशक में पूरा विश्व जब दो खेमों में बटा हुआ था तब भारत के आहवान पर 108 देशों ने ‘‘निर्गुट आंदोलन’’ के रूप में भारत का नेतृत्व स्वीकार किया था। भारत के इतिहास व संस्कृति के कारण विश्व के समस्त दुर्बल देशों को भारत से एक कल्याणकारी मार्गदर्शक नेतृत्व की अपेक्षा थी। हमारे प्रथम प्रधानमंत्री ने 14 व 15 अगस्त की मध्यरात्री पर लाल किले पर तिरंगा फहराते हुये ही घोषणा की थी कि भारत विश्व के राष्ट्रपरिवार में अपनी सकारात्मक भुमिका को निभाने के लिये तत्पर है। 15 अगस्त को आकाशवाणी पर प्रसारित संदेश में महायोगी अरविन्द ने स्वतन्त्र भारत के समक्ष तीन चरणो में लक्ष्य रखा था। पहले चरण में भारत के अस्वाभाविक, अप्राकृतिक विभाजन को मिटा अखण्ड भारत का पुनर्गठन, द्वितीय चरण में पूरे एशिया महाद्विप का भारत के द्वारा नेतृत्व तथा अन्ततः पूरे विश्व में गुरूरूप में संस्थापना। आज 65 वर्ष के बाद क्या हम इनमें से किसी भी लक्ष्य के निकट भी पहूँच पाये है?
विश्व के मार्गदर्शन की तो बात दूर रही हम अपने देश को ही पूर्णतः समर्थ, समृद्ध व स्वावलम्बी भी कहाँ बना पाये है? सारा विश्व भारत की असीम सम्भावनाओं की चर्चा करता है। किन्तु उन सम्भावनाओं को प्रत्यक्ष धरातल पर उतारने का काम अभी भी कहाँ हो पाया है? देश 70 प्रतिशत जनता अभाव में जी रही है। धनी व निर्धन के बीच की खाई बढ़ती जा रही है। संस्कारों का क्षरण तेजी से हो रहा है। भारतीय भाषाओं का महत्व व प्रासंगिकता दोनों ही इतनी गति से कम हो रही है कि कई देशी बोलियों के अस्तीत्व पर ही प्रश्नचिन्ह लग रहा है। कुल मिलाकर भारत में से भारतीयता की प्रतिष्ठा समाप्त हो रही है। कहीं पर भी कोई व्यवस्था नहीं दिखाई देती। राजनयिक, सामाजिक तथा प्रशासनिक व्यवस्था पूर्णतः शिथिल व दिशाहीन हो रही है। शिक्षा व्यवस्था भी इतनी प्राणहीन हो गई है कि चरित्रनिर्माण तो दूर की बात सामान्य लौकिक ज्ञान को प्रदान करने में भी इसे सफलता नहीं मिल पा रही। स्नातकोत्तर उपाधि धारण करनेवाले छात्र भी किसी भी एक भाषा में सादा पत्र भी नहीं लिख पाते है। इन शिक्षितों को बिना अंगरेजी का उपयोग किये 4 वाक्य बोलना भी असम्भव सा लगता है। दूसरी ओर वही उच्चशिक्षित छात्र शुद्ध अंगरेजी में भी 4 वाक्य नहीं बोल पाता है। ऐसी शिक्षापद्धति के कारण उत्पन्न चरित्रहीनता से सर्वत्र भ्रष्टाचार व अराजकता का वातावरण बन गया है। इस सबको बदलने के लिये अनेक आंदोलन भी चलाये जा रहे है। जब तक हम समस्या की जड़ को नही जान जाते तब तक सारे प्रयास पूर्ण प्रामाणिक होते हुए भी व्यर्थ ही होंगे।
देश की इस परिस्थिति के कई कारण है। समस्याएं बहुआयामी हैं। आर्थिक, नीतिगत, कार्यकारी, संस्थागत, सामाजिक, व्यक्तिगत कई कारणों से समस्या जटील होती जा रही है। कई प्रकार के देशभक्त व्यक्ति व संगठन इन कारणों के निवारण पर कार्य कर रहे है। फिर भी अपेक्षित परिणाम दिखाई नहीं दे रहा। समस्या के समाधान हेतु सभी पहलुओं पर काम तो करना ही पड़ेगा किन्तु दिशा एक होना आवश्यक है। हमें अपने देश के मूलतत्व, चिति के अनुरूप व्यवस्थाओं का निर्माण करने की ओर प्रयास करना होगा। भारत का जागरण भारतीयता का जागरण है। हमारा राष्ट्रीय तन्त्र हमारे स्वबोध को लेकर विकसित करना होगा तभी यह स्वतन्त्र कहा जायेगा। राज्यव्यवस्था हमारे राष्ट्रीय स्वभाव के अनुसार होगी तभी स्वराज्य का स्वप्न साकार होगा। स्वामी विवेकानन्द ने बार बार कहा है प्रत्येक राष्ट्र का विश्व को संप्रेषित करने अपना विशिष्ट संदेश होता है, नियति होती है जिसे उसे पाना होता है और जीवनव्रत होता है जिसका उसे पालन करना होता है। वे कहते है भारत का प्राणस्वर धर्म है और उसी के अनुरूप उसका मानवता को संदेश है आध्यात्म, नियति है जगत्गुरू तथा जीवनव्रत है मानवता को ऐसी जीवनपद्धति का पाठ पढ़ाना जो सर्वसमावेशक, अक्षय व समग्र हो।
स्वतन्त्र भारत को अपनी नियति को पाने के लिये अपने जीवनव्रत के अनुसार व्यवस्था का निर्माण करना था। उसके स्थान पर हम सदैव उधार की व्यवस्थाओं को अपनाते रहे। हमने अपना संविधान तक विभिन्न देशों से उधार लिया। अनेक शताब्दियों तक विविधता से सम्पन्न विस्तृत राज्य पर सुचारू संचालन करने वाली नैसर्गिक व्यवस्था का सैद्धान्तिक व व्यावहारिक प्रतिपादन करनेवाले चाणक्य, विद्यारण्य तथा शिवाजी आदि स्वदेशी चिंतको की सफल राजव्यवस्थाओं का अध्ययन कर उन्हें कालानुरूप समायोजित करने का विचार ही नहीं हुआ। क्या विदेशी आधार पर बने संविधान से विकसित तन्त्र स्वदेशी हो सकता है? इसी का परिणाम हुआ कि हमने आगे चलकर राष्ट्र के प्राण ‘धर्म’ को ही राजतन्त्र से नकार दिया। यही कारण है कि पूरी व्यवस्था ही प्राणहीन हो गई।
अर्थतन्त्र में भी हमने प्रथम चार दशक तक रूस की साम्यवादी व्यवस्था से प्रेरणा ग्रहण कर समाजवादी अर्थव्यवस्था का निर्माण किया। उसकी निष्फलता सिद्ध हो जाने पर 1991 के बाद आर्थिक उदारता के नाम पर पश्चिम के मुक्त बाज़ार व्यवस्था को अपनाया। जब कि यह विश्वमान्य तथ्य है कि 18 वी शति के प्रारम्भ तक भारत ना केवल विश्व का सबसे समृद्ध देश था अपितु वैश्विक संपदा का 33 प्रतिशत भारत में था। विश्व के धनी देशों के संगठन Organisation for Economic Co-operation and Development (OECD) ने ख्यातनाम अर्थवेत्ता एंगस मेडीसन को इसवी सन के प्रारम्भ से विश्व की सकल सम्पदा (गडप) पर अनुसंधान करने का प्रकल्प दिया। उन्होंने विश्व के आर्थिक इतिहास का संकलन किया। उनके अनुसार भारत व चीन विश्व के सबसे धनी देश रहे है। इसा के काल के प्रारम्भ से 14 वी शती तक तो चीन भी किसी होड़ में नहीं था। अंगरेजों ने इस प्राचीन समग्र व्यवस्था को तोड़ अपनी शोषण पर आधारित व्यवस्था को लागु किया तब से इस देश में विपन्नता का राज प्रारम्भ हुआ। आज राजनैतिक स्वतन्त्रता के 65 वर्षों बाद भी हम उसी दासता को क्यों ढ़ो रहे है? इस देश का अतीत जब इतना समृद्ध रहा है तब यदि आज भी हम अपने सिद्धान्तों पर आधारित व्यवस्था का निर्माण करेंगे तो पुनः विश्व के सिरमौर बन सकते है।

आज हम अपनी स्वतन्त्रता को खोने के कगार पर आ पहूँचे है ऐसे में मानसिक स्वाधीनता का वैचारिक आंदोलन प्रारम्भ करने की आवश्यकता है। एक ऐसे तन्त्र के निर्माण का आन्दोलन जो देशज हो अर्थात इस देश के ऐतिहासिक, सांस्कृतिक तथा धार्मिक अनुभव से उपजा हो। ऐसे तन्त्र का स्वाधीन होना भी आवश्यक है। अर्थात इसके सभी कारकों पर अपने राष्ट्र का ही निर्णय हो। इस हेतु शिक्षा के राष्ट्रीय बनने की आवश्यकता है। जिससे निर्णायक भी स्वदेश की भावना व ज्ञान से परिपूर्ण हो। स्व-तन्त्र का तिसरा आवश्यक पहलु है स्वावलम्बी तन्त्र। तन्त्र की सहजता व सफलता उसके निचली इकाई तक स्वावलम्बी होने में है। गाँव अपने आप में स्वावलम्बी हो तो ही सबका अभ्युदय सम्भव होगा। भारतीय व्यवस्था हर स्तर पर स्वावलम्बी होती है। इसमें तन्त्र के निर्माण के बाद नियमित संचालन के लिये शासन के भी किसी हस्तक्षेप अथवा सहभाग की आवश्यकता नहीं होती। समाज ही स्वयं संचालन करता है। आपात् स्थिति में ही शासन को ध्यान देना पड़ता है।
आज हम सब स्वाधीनता दिवस मनायेंगे। केवल देशभक्ति की भावना को उजागर करने के साथ ही स्वाधीनता के मर्म पर विचार भी हो यह शुभाकांक्षा।